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तिल की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

तिल की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

तिल की खेती कम पानी वाले इलाकों में की जाती है। कम लागत मैं अच्छी आए देने वाली तिल की फसल लोगों में कम प्रचलित है लेकिन हालिया तौर पर खाद्य तेलों की कमी के चलते आसमान छू रहे खाद्य तेलों के दाम किसानों को तेल और सोयाबीन जैसी फसलों की तरफ आकर्षित कर रहे हैं। तिल की शुद्ध एवं मिश्रित खेती की जाती है। मैदानी इलाकों में तिल की फसल को ज्वार बाजरा अरहर जैसी फसलों के साथ मिश्रित रूप से करते हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार सहित कई राज्यों में तिल की खेती की जाती है। वर्तमान दौर में तिल की खेती आर्थिक दृष्टि से बेहद लाभकारी हो सकती है।

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श्रेष्ठ उत्पादन तकनीक

अच्छी पैदावार के लिए बढ़िया जल निकासी वाली जमीन होनी चाहिए। खेत की तैयारी गहरी मिट्टी पलटने वाले कल्टीवेटर एवं हैरों आदि से करनी चाहिए। अच्छी उपज के लिए 5 टन सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से जरूर डालनी चाहिए। खाद आदि डालने से पहले खेत को कंप्यूटर मांझे से समतल करा लेना चाहिए ताकि बरसाती सीजन में खेत के किसी हिस्से में पानी रुके नहीं और फसल गलने से बच सके।

उन्नत किस्में

अच्छी पैदावार के लिए अच्छे बीज का होना आवश्यक है। हर राज्य की जलवायु के अनुरूप अलग-अलग किसमें होती हैं किसान भाइयों को अपने राज्य और जिले के कृषि विभाग, कृषि विज्ञान केंद्र एवं कृषि विश्वविद्यालय में संपर्क करके अपने क्षेत्र के लिए अच्छी किस्म का चयन करें। अच्छी किस्म का पता आजू बाजू में खेती करने वाले किसान से भी मिल सकता है। सरकारी संस्थानों में बीज की कमी और किसानों की पहुंच ना होने के कारण विश्वसनीय प्राइवेट दुकानदारों से भी अच्छा बीज लिया जा सकता है। टी- 4,12,13,78, आरटी-351,शेखर, प्रगति, तरुण आदि किस्में विभिन्न क्षेत्रों एवं पर्यावरणीय परिस्थितियों के लिए अनुमोदित हैं। सभी किस्में 80 से अधिकतम 100 दिन में पक जाती हैं। तेल प्रतिशत 40 से 50 रहता है। उत्पादन 7 से 8 कुंतल प्रति हेक्टेयर मिलता है।

तिल की खेती के लिए बीज दर

एक हेक्टेयर में तिल की खेती करने के लिए 3 से 4 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। बीज को उपचारित करके बोना चाहिए। उपचारित करने के लिए 2 ग्राम जीरा या 1 ग्राम कार्बेंडाजिम दवा में से कोई एक दवा लेकर प्रति किलोग्राम बीज में बुवाई से पूर्व में लनी चाहिए। इससे बीज जनित रोगों से बचाव हो सकता है।

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तिल की बिजाई का समय

तिल की बिजाई के लिए जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के दूसरे पखवाड़े तक की जा सकती है। बिजाई हमेशा लाइनों में करनी चाहिए। यदि मशीन से बिजाई की जाए तो ज्यादा अच्छा रहता है। लाइन से लाइन की दूरी 30 से 45 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। बीज को ज्यादा गहरा नहीं बोना चाहिए।

तिल की खेती के लिए जरूरी उर्वरक

तिल की खेती के लिए 30 किलोग्राम नत्रजन 20 किलोग्राम फास्फोरस एवं 20 किलोग्राम गंधक का प्रयोग करना चाहिए। फसल बिजाई से पूर्व नत्रजन की आधी मात्रा ही गंधक एवं फास्फोरस के साथ मिलाकर डालनी चाहिए। उर्वरक प्रबंधन मिट्टी परीक्षण के आधार पर करें तो ज्यादा लाभ हो सकता है। फसल में फूल बनते समय 2% यूरिया के घोल का छिड़काव बेहद कारगर रहा है। थायो यूरिया का प्रयोग भी इस अवस्था में श्रेष्ठ रहेगा। तिल की खेती के लिए पहली निराई गुड़ाई 20 दिन के बाद एवं दूसरी निराई गुड़ाई 30 से 35 दिन के बाद कर देनी चाहिए। इस दौरान जहां पौधे ज्यादा नजदीक हो उन्हें हटा देना चाहिए पौधे से पौधे की दूरी 10 से 12 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। इसके अलावा खरपतवार नियंत्रण के एलाक्लोर 50 इसी सवा लीटर मात्रा बुवाई के 3 दिन के अंदर खेत में छिड़क देनी चाहिए। जब पौधों में 50 से 60% फली लग जाएं तब खेत में नमी बनाए रखना आवश्यक है। नमी कम हो तो पानी लगाना चाहिए। पकी फसल की फलियां ऊपर की तरफ रखनी चाहिए। फलिया सूख जाएं तो उन्हें उलट कर ततिल निकालना चाहिए। तिल को सदैव प्लास्टिक के त्रिपाल पर ही झाड़ना चाहिए। कच्चे स्थान पर झाड़ने से तिल की गुणवत्ता खराब हो जाती है। तिल की फसल को कीट एवं रोगों से बचाने के लिए डाईमेथोएट ३० इसी एवं क्यूनालफास 25 ईसी की सवा लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर के हिसाब से फसल पर छिड़कनी चाहिए। इन रसायनों से ज्यादातर रोग नियंत्रित हो जाते हैं।
तिल की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग और उनका नियंत्रण 

तिल की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग और उनका नियंत्रण 

भारत में तिल को तिलहनी फसल के रूप में उगाया जाता है। तिल के तेल का उपयोग कई चीजों में किया जाता है। भारत मे तिल का उत्पादन उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात में अधिक होता है। तिल की खेती के लिए समतल भूमि और कम पानी की आवश्यकता होती है। तिल की खेती कई रोगों से ग्रस्त होती है जिसके कारण फसल की उपज बहुत कमी आती है जिससे किसानों को आर्थिक हानि होती है इसलिये हमें समय-समय पर अच्छा उत्पादन लेने के लिये इन रोगों के नियंत्रण के लिये उपाय करते रहना चाहिये। इस लेख में हम आपको तिल के प्रमुख रोगों और उनको नियंत्रण करने के उपायों के बारे में बातएंगे जिससे की आप समय से फसल में रोग नियंत्रण कर सकते है।       

तिल में लगने वाले रोग एवं उनके उपाय                              

   1.अल्टरनेरिया पत्ति धब्बा रोग 

  • इस रोग से संक्रमित पत्तियों पर संकेंद्रित वलय वाले छोटे, गोलाकार लाल-भूरे रंग के धब्बे बन जाते है। 
  • इसके अलावा डंठल, तने और कैप्सूल पर गहरे भूरे रंग के घाव हो जाते है। जैसे - जैसे रोग आगे बढ़ता है पत्तियों  झुलसना कर झड़ना शुरू हो जाती है। फलियों पर संक्रमण होने पर बीज सिकुड़े हुए बनते है और फलियां फटना शुरू हो जाती है।  


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रोग नियंत्रण के उपाय 

  • जिस खेत में ये रोग आता हो उसमें कम से कम 2 साल तक फसलचक्र अपनायें। 
  • इस रोग से बचाव के लिए बुवाई के लिए प्रभावित व स्वस्थ बीज का चयन करना चाहिये। 
  • बुवाई से पहले बीज उपचार करना चाहिए जिसके लिये ट्राइकोडर्मा विरडी 5 ग्राम प्रति किग्रा. बीज दर से उपयोग करना चाहिये। 
  • खड़ी फसल में रोग को नियंत्रित करने के लिए मैंकोजेब की 400 ग्राम प्रति मात्रा की प्रति एकड़ स्प्रे  करें।

   2. फायलोडी रोग 

  • इस रोग को फायलोडी रोग के नाम से भी जाना जाता है यह रोग माईकोप्लाज्मा के द्वारा होता है एवं इस रोग में पुष्प के विभिन्न भाग विकृत होकर पत्तियों के समान हो जाते हैं। संक्रमित पौधों में पत्तियाँ गुच्छों में छोटी-छोटी दिखाई देती हैं और पौधों की वृद्धि रुक जाती है। ये रोग एक पौधे से दूसरे पौधे में जैसिड द्वारा फैलाया जाता है। 

रोग नियंत्रण के उपाय 

  • सबसे पहले इस रोग वेक्टर को नियंत्रित करने के लिए, एनएसकेई @ 5% या नीम तेल @ 2% का छिड़काव करें जिससे की संक्रमित पौधे से रोग स्वस्थ पौधे में ना फैले और पैदावर हानि ना हो।  
  • इमिडाक्लोप्रिड 600 एफएस @ 7.5 मि.ली./कि.ग्रा. की दर से बीज उपचार करें। 
  • खड़ी फसल में रोग का संक्रमण दिखाई देने पर वेक्टर को नियंत्रण करे के लिए क्विनालफोस 25 ईसी 800 मिली/एकड़ या थियामेथोक्साम 25डब्ल्यूजी @ 40 ग्राम/एकड़ या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल @ 40 मिली/एकड़ का छिड़काव करें।
  • तिल के साथ अरहर की खेती करके इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है।    


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   3.जड़ गलन रोग  

  • इस रोग के लक्षण सबसे पहले पुरानी पत्तियों पर दिखाई देते है। पत्तियों का पीला होकर गिरना इस रोग के प्रमुख लक्षण है। संक्रमित पौधे की जड़े पूरी तरह से गल जाती है और पौधे को आसानी से मिट्टी से निकाला जा सकता है। इस रोग से संक्रमित पौधों की फलियाँ समय से पहले खुल जाती हैं।                                                                   

रोग नियंत्रण के उपाय  

  • जिस खेत में रोग का अधिक प्रकोप होता हो उस खेत में तिल की फसल ना लगाए। 
  • रोग से बचाव के लिए समय से फसल  बुवाई करें। 
  • खड़ी फसल में रोग को नियंत्रित करने के लिए कार्बेन्डाजिम 50 WP को 1 ग्राम प्रति लीटर की दर से पौधे की जड़ो में डालें। 

   4.पाउडरी मिल्डयू 

  • ये रोग कवक के द्वारा होता है इस रोग के लक्षण पत्तियों पर दिखाई देते हैं। इस रोग में पौधों की पत्तियों के ऊपरी सतह पर पाउडर जैसा सफेद चूर्ण दिखाई देता है। इस रोग का संक्रमण फसल में 45 दिन से लेकर फसल पकने तक होता है। 

रोग नियंत्रण के उपाय   

  • रोग के नियंत्रण के लिए wettable सल्फर 80 WP 500 ग्राम को प्रति एकड़ हर 15 दिनों में  संक्रमित फसल में डालें। इसके आलावा इस रोग को नियंत्रित करने के लिए 10 किलोग्राम sulphur dust  को प्रति एकड़ के हिसाब से में डालें।       

   5. फाइटोफ्थोरा अंगमारी

  • यह मुख्यतः फाइटोफ्थोरा पैरसिटिका नामक कवक से होता है सभी आयु के पौधों पर इसका हमला हो सकता है। इस रोग के लक्षण पौधों की पत्तियो एवं तनों पर दिखाई देते हैं। इस रोग में प्रारम्भ में पत्तियों पर छोटे भूरे रंग के शुष्क धब्बे दिखाई देते हैं ये धब्बे बड़े होकर पत्तियों को झुलसा देते हैं तथा ये धब्बे बाद में काले रंग के हो जाते हैं। रोग ज्यादा फैलने से पौधा मर जाता है। 


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रोग नियंत्रण के उपाय   

  • रोग से बचाव के लिए लगातार एक खेत में तिल की बुवाई ना करें। 
  • खड़ी फसल में रोग दिखने पर रिडोमिल 5 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर 10 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए। 
इस लेख में आपने तिल के प्रमुख रोगों और इनकी रोकथाम के बारे में जाना । मेरी खेती आपको खेतीबाड़ी और ट्रैक्टर मशीनरी से जुड़ी सम्पूर्ण जानकारी प्रोवाइड करवाती है। अगर आप खेतीबाड़ी से जुड़ी वीडियोस देखना चाहते हो तो हमारे यूट्यूब चैनल मेरी खेती पर जा के देख सकते है।